Friday, March 23, 2007

चाह

अन्तर के क़ीसी कोने मे
ुकुच कर गुजरने की आशा सी
कीसी को देदीप्यमान कर्ने की
समाई हुई है एक चाह

कीसी को अपना बनाने की
कीसी से न िब्चडने की
ईसी तरह दुस्रोन को प्रकाशित कर्ने की
समाई हुई है एक चाह


गुरु को वन्दन कर्ने की
उनकी अम्रुत्वाणी से
अप्नी राह बनाने की
समाई हुई है एक चाह

माता पीता के इस ऋण को
तृण बन स्वीकार क
र्न भुल्ने की
समाई हुई है एक चाह

नेीरन्तर नेीराकार म लेीन रह्ने की
अकिन्चन बन सचिदान्नद मे मील जाने की
िन्र्गुण स्वरुप म वेीलेीन होक मोक्श पाने की
समाई हुई है एक चाह

भुवनेश्वरी पाठक

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